Saturday, August 4, 2018

ताशकंद समझौता (taskand agriment)

भारत और पाकिस्तान के बीच अब तक 4 बड़े युद्ध हो चुके हैं और गर्व की बात यह है कि इन चारों युद्धों में भारत की जीत हुई है. भारत और पाकिस्तान के बीच पहला युद्ध 1948 में कश्मीर में कब्जे को लेकर हुआ था, इसके बाद 1965 की लड़ाई, 1971 का बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और सबसे बाद में 1999 में कारगिल युद्ध हुआ था. इस लेख में 1965  के युद्ध को शांत करने के लिए दोनों देशों के बीच ताशकंद समझौता हुआ था. इस लेख में इस समझौते के परिणाम और उसकी विभिन्न परिस्तिथियों के बारे में बताया गया है.
अगस्त 1965 के पहले सप्ताह में, पाकिस्तान के 30 हजार से 40 हजार सैनिकों ने कश्मीर से लगी भारतीय सीमा में घुसने के लिए “ऑपरेशन जिब्राल्टर”चलाया था. इनका लक्ष्य कश्मीर के चार ऊंचाई वाले इलाकों गुलमर्ग, पीरपंजाल, उरी और बारामूला पर कब्ज़ा करना था ताकि यदि भारी लड़ाई छिड़े तो पाकिस्तान की सेना ऊँचाई पर बैठकर भारत की सेना के दांत खट्टे कर सके और अंत में कश्मीर पर कब्ज़ा किया जा सके.
भारत ने पाकिस्तान की इस चाल को भांप लिया और “ऑपरेशन जिब्राल्टर” को फेल कर दिया और इसी कारण दोनों देशों के बीच 1965 की लड़ाई शुरू हो गयी.पाकिस्तान को चीन की तरफ से पूरा समर्थन मिल रहा था. लेकिन इस समय चीन के रूस और अमेरिका से रिश्ते अच्छे नहीं थे इसी कारण वह युद्द में सीधे तौर पर भाग नहीं ले रहा था.
चीन की भारत से चिढ़ का सबसे बड़ा कारण था नेहरु द्वारा दलाई लामा को भारत में शरण देना था .चीन इस जंग को खत्म करवाने की जगह इसे लंबा खिंचवाने की फ़िराक में था लेकिन अमेरिका और रूस नहीं चाहते थे कि दक्षिण एशिया में चीन का दबदवा बढे इसलिए ये दोनों देश भारत के पक्ष में थे और युद्ध को जल्दी ख़त्म करना चाहते थे.
भारत की सेना ने पाकिस्तान की सेना को खदेड़ दिया और लाहौर के बाहर तक पहुँच गयी थी. लेकिन 1965 की जंग के समय भारत के आर्मी चीफ थे जयंतो नाथ चौधरी की एक गलती के कारण भारत को पाकिस्तान से समझौता करना पड़ा और भारत को पाकिस्तान के जीते हुए सभी इलाके लौटाने पड़े.
भारत के आर्मी चीफ जयंतो नाथ चौधरी की गलती के बारे में तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने अपनी डायरी में लिखा कि एक किताब "1965 वॉर, द इनसाइड स्टोरी: डिफेंस मिनिस्टर वाई बी चव्हाण्स डायरी ऑफ इंडिया-पाकिस्तान वॉर" में आप पढ़ सकते हैं कि भारत के आर्मी चीफ डरपोक किस्म के इन्सान थे. चव्हाण ने लिखा है कि चौधरी बहुत जल्द डर जाते थे. चव्हाण उनको कहते थे कि सीमा पर जाओ मगर चौधरी सीमा पर जाने से डरते थे.
(जयंतो नाथ चौधरी)
jayanto nath
इस किताब के लेखक R.D.प्रधान का लिखा एक वाकया जिसने भारत की जीत को हार में बदल दिया था. इस प्रकार है;
सितंबर, 20 1965; को प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने आर्मी चीफ से पूछा.कि अगर जंग कुछ दिन और चले, तो भारत को क्या फायदा होगा. सेना प्रमुख ने कहा कि आर्मी के पास गोला-बारूद खत्म हो रहा है. इसीलिए अब और जंग लड़ पाना भारत के लिए ठीक नहीं है. उन्होंने प्रधानमंत्री को सलाह दी कि भारत को रूस और अमेरिका की पहल पर संघर्ष विराम का प्रस्ताव मंजूर कर लेना चाहिए और शास्त्री जी ने ऐसा ही किया.
लेकिन बाद में मालूम चला कि भारतीय सेना के गोला-बारूद का केवल 14 से 20 प्रतिशत सामान ही खर्च हुआ था.अगर भारत चाहता तो पाकिस्तान का नामो-निशान मिटाने तक लड़ता रहता. लेकिन भारत के सेनाध्यक्ष की गलत जानकारी देने की गलती के कारण ऐसा नहीं हो सका. सेनाध्यक्ष की गलतियां इतने पर खत्म नहीं होती हैं. समझौते से पहले भारत की सेना लाहौर के बाहर तक पहुँच चुकी थी. इंडियन आर्मी आसानी से सियालकोट और लाहौर पर कब्जा कर सकती थी. लेकिन आर्मी चीफ ने शास्त्री को ऐसा करने से रोका.
जब पाकिस्तानी सेना ने पंजाब के खेमकरन पर हमला किया, तो उस वक्त वहां भारतीय सेना के कमांडर हरबख्श सिंह पॉजिशन पर थे. आर्मी चीफ ने हरबख्श सिंह से कहा कि वो किसी सुरक्षित जगह पर चले जाएं. लेकिन कमांडर हरबख्श सिंह ने अपने आर्मी चीफ की सलाह को मानने से इनकार कर दिया. इसके बाद ही हुई थी ‘असल उत्तर’ की भयंकर लड़ाई. जहां भारतीय सेना के हवलदार वीर अब्दुल हमीद ने जबर्दस्त बहादुरी दिखाई थी. हमीद ने पाकिस्तान के कई पैटन टैंक बर्बाद कर दिए उन्होंने.
10 सितंबर की रात को भारत ने पाकिस्तान पर हमला किया था. यह हमला इतना भयानक था कि पाकिस्तानी सेना अपनी 25 तोपों को छोड़कर भाग गई थी. टैंक का इंजन चल रहा था यहाँ तक कि उसमें लगे वायरलेस सेट चालू थे.आप इस मंजर से ही अंदाजा लगा सकते हैं कि पाकिस्तान की इस युद्ध में कितनी बुरी हार हुई होगी. यह हार और भी बद्तर होती यदि शास्त्री जी को गलत जानकारी ना दी गयी होती और ताशकंद समझौता ना हुआ होता.
ताशकंद समझौते के बारे में
भारत के पास गोला बारूद खत्म की गलत सूचना और लाहौर के ठीक बाहर भारतीय सेना का पहुँच जाना; ये दोनों ही परिस्तिथियाँ थी जिसके कारण दोनों देश समझौते के लिये तैयार हुए थे.
(लाहौर के बार्की पुलिस स्टेशन के बाहर खड़े भारत के सैनिक)
indian army in lahaur 1965
इन स्थितियों में भारत को सिर्फ सोवियत पर ही भरोसा था. इसलिए सोवियत ने जनवरी 1966 के पहले हफ्ते में समझौते की शर्तों पर विचार करने के लिए भारत और पाकिस्तान को ताशकंद बुलाया. ताशकंद उज्बेकिस्तान में आता है और उस समय सोवियत संघ का हिस्सा था.
चीन से 1962 की शर्मनाक हार के बाद भारत की सेना को शास्त्री जी से उम्मीद थी कि वे समझौते में पाकिस्तान के जीते हुए इलाके लौटाने की बात स्वीकार नहीं करेंगे और शास्त्री जी ने भी वादा  किया था कि सेना के जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा.
स्टैनले वोल्पर्ट ने अपनी किताब ‘जुल्फी भुट्टो ऑफ पाकिस्तान: हिज लाइफ ऐंड टाइम्स’ में लिखा है. कि भुट्टो ने जब इस मीटिंग में शामिल होने की कोशिश की, तब अयूब ने उन्हें बाहर ही रहने का इशारा किया. स्टैनले वोल्पर्ट लिखते हैं कि अयूब ने भुट्टो की तरफ अंगुली तानकर उन्हें बेहद सख्त इशारा किया था. एक कमरे में अयूब और शास्त्री अकेले मीटिंग किया करते थे. दूसरे कमरे में भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह के साथ भुट्टो बैठे रहते.
shastri and ayub khan meeting
शास्त्री जी ने कहा कि वो कश्मीर के बारे में कोई समझौता नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने अपने देशवासियों को वचन दिया है.
शास्त्री जी चाहते थे कि समझौते की शर्तों में ‘नो वॉर क्लॉज’ भी शामिल हो. यानी पाकिस्तान की तरफ से ये आश्वासन दिया जाए कि आगे कभी वो भारत से लड़ाई नहीं करेगा. अयूब इसके लिए राजी भी हो गए थे. उन्होंने मान लिया था कि भारत के साथ अपने विवाद सुलझाने के लिए पाकिस्तान कभी भी सेना का सहारा नहीं लेगा. मगर भुट्टो ने उन्हें धमकाया. कहा कि वो पाकिस्तान में लोगों को बता देंगे कि अयूब ने देश के साथ गद्दारी की है. इसी कारण अयूब ने इस “नो-वॉर क्लॉज” को समझौते में शामिल करने से इनकार कर दिया था.
क्या समझौता हुआ था?
दोनों देशों के बीच 10 जनवरी, 1966 की तारीख को समझौते पर लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने हस्ताक्षर किये. समझौते में तय हुआ कि जंग से पहले दोनों देशों की जो स्थिति थी, वही बनी रहेगी. भारत ने स्वीकार कर लिया कि वह पाकिस्तान से जीते गए सारे इलाके लौटा देगा साथ ही पाकिस्तान ने "नो वॉर क्लॉज" का शर्त भी नहीं मानी. 
शास्त्री जी ने इतना हारा हुआ समझौता क्यों किया इस बारे में सब कुछ रहस्य ही रह गया है. इस प्रकार भारत; सैनिकों की जाबांजी से जीती गयी यह जंग, नेताओं की समझौते की टेबल पर की गयी नाकामी से बेकार चली गयी.
शास्त्री जी कि मृत्यु 
10 जनवरी, 1966 अर्थात समझौते का दिन शास्त्री की जिंदगी का आखिरी दिन साबित हुआ. रात करीब 9:30 बजे का वक्त था और पूरा प्रोग्राम निपट गया था, अयूब और शास्त्री ने आखिरी बार हाथ मिलाकर विदा ली.
Lal Bahadur Shastri death
इसके बाद वो दोनों अपने-अपने कमरों में चले गए. कहते हैं कि करीब चार घंटे बाद, रात तकरीबन डेढ़ बजे लाल बहादुर शास्त्री को दिल का दौरा आया. उनकी वहीं मौत हो गई. अरशद शामी खान की एक किताब है- Three Presidents and an Aide: Life, Power and Politics. अरशद ने इस किताब में शास्त्री की मौत के समय का एक वाकया लिखा है-
अजीज अहमद को शास्त्री की खबर मिली. वो खुशी से झूमता हुआ भुट्टो के कमरे में पहुंचा और कहा- वो ‘हरा*’ मर गया. भुट्टो ने पूछा- दोनों में से कौन? हमारा वाला या उनका वाला?
समझौते पर दस्तखत किए जाने के कुछ ही घंटों के भीतर उनकी मौत हो गई. शास्त्री जी की मौत को लेकर कई तरह के कयास लगाए जाते हैं. कोई कहता है कि अमेरिका का हाथ, कोई  पाकिस्तान का हाथ, कोई कहता है उन्हें जहर दिया गया था और कई तरह की कॉन्सपिरेसी थिअरीज हैं. वर्ष 1996 में रॉबर्ट ट्रमबुल नाम के एक पूर्व CIA अधिकारी ने कहा था कि शास्त्री की मौत के पीछे CIA का ही हाथ था. लेकिन
सोवियत रूस ने कहा कि शास्त्री को दिल का दौरा आया था. ऐसा हो सकता है कि शास्त्री जी को इस बात की चिंता सता रही हो कि उन्होंने देश के लोगों से किया बादा पूरा नहीं किया. वो जानते थे कि इस समझौते से भारत में सब बहुत नाराज होंगे. भारतीय सेना सबसे ज्यादा मायूस होगी. शायद यही तनाव रहा हो और उन्हें “दिल का दौरा” पड़ा हो.
शास्त्री जी की मौत से जुड़े कुछ अनसुलझे प्रश्न;
1. उनका पोस्टमॉर्टम क्यों नहीं कराया गया था.
2. उस दिन उनके निजी रसोइया राम नाथ ने खाना नहीं पकाया था. उस समय रूस में भारत के राजदूत थे, टी एन कौल; उनके ही शेफ जान मुहम्मद ने खाना पकाया था.
3. आम तौर पर लीडर्स जिस कमरे में रुकते हैं उसमें एक घंटी लगी होती है ताकि जरूरत पड़ने पर किसी को बुलाया जा सके, मगर शास्त्री के कमरे में कोई घंटी भी नहीं थी.
4. राम नाथ को एक कार ने धक्का मार दिया था और उनकी याद्दाश्त चली गई थी.
इस प्रकार ताशकंद समझौते के कारण भारत युद्ध जीतकर भी हार गया और पाकिस्तान युद्ध हारकर भी नहीं हारा. काश इस समझौते में "नो वॉर क्लॉज" स्वीकार कर लिया गया होता तो शायद इन दोनों मुल्कों के बीच कुछ शांति का माहौल होता. हालाँकि इसकी संभावना भी कम ही नजर आती है क्योंकि जिस देश का "नक्सा ही कुत्ते की शक्ल" का हो उससे कहाँ तक उम्मीद ही जाती है कि वह समझौतों का पालन करेगा.

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